
काश, मुझे वह शक्ति मिल जाए कि जब चाहूँ, एक सुंदर स्त्री बन सकूँ—जिसका नाज़ुक अंदाज़ और ममतामयी स्वभाव उसके प्रिय के गुस्से को पल भर में पिघला दे। क्योंकि स्त्रीत्व जब जागता है, तो प्रेम व्यक्त करना इतना सहज लगता है।
एक पुरुष के लिए “माफ़ करो” कहना पहाड़ तोड़ने जैसा है। शब्द निकल भी जाएँ, तो अहंकार की छाया उन पर मँडराती रहती है—गुस्सा राख के नीचे दबी आग की तरह सुलगता रहता है। परंतु स्त्री को शब्दों की ज़रूरत ही कहाँ? वह तो अपने इशारों से बोलती है: चाय बनाते हुए गुनगुनाता गीत, प्यार से सिर झुकाकर कंधे पर रख देना, या चुपचाप हाथ थाम लेना। उसकी मुस्कान, उसकी कोमलता ही माफ़ी माँगने का तरीका बन जाती है। वह नाराज़गी को रोशनी की तरह बिखेर देती है—झगड़े पिघल जाते हैं, और बचता है तो बस प्रेम का सन्नाटा।
पुरुष का अहंकार लड़ाई को हथियार समझता है, पर स्त्री तो प्रेम को रसोई में गुनगुनाते गीत बना देती है। वह बिना कुछ कहे केक सेंक देती है, जिसकी खुशबू कहती है—”रुक जाओ”। वह पुरानी यादों के गाने चला देती है, और नाचते-नाचते उसका प्यार गुस्से को हवा में उड़ा देता है। उसके लिए प्रेम “शब्द” नहीं, क्रिया है: एक चुंबन, एक आलिंगन, या आँखों में छिपी वह नमी जो सब कुछ कह जाती है।
शायद यह इच्छा सिर्फ़ एक सपना नहीं, बल्कि उस मन की पुकार है जो अहंकार के बजाय कोमलता में विश्वास रखता है। काश, मैं वह स्त्री बन पाता—जो बताती कि प्रेम की भाषा में “सॉरी” नहीं, सहजता बोलती है… और जहाँ यह भाषा बोली जाए, वहाँ क्रोध का नामोनिशान नहीं रहता।
Trust n surrender